पलक से आ लगे कई जुगनू जगमगाते हुए किसी ने देखा हमें ऐसे मुस्कुराते हुए मैं चाहता हूँ कि वो भी ख़ुशी में शामिल हो सो रोने लगता हूँ अक्सर ख़ुशी मनाते हुए अजीब ख़ौफ़ अँधेरे का मुझ को था उस रात पसीने आ गए मुझ को दिया बुझाते हुए हमें भी जैसे अचानक ही घर की याद आई परिंदे शाम को जब गुज़रे चहचहाते हुए वो एक रुत का मुसाफ़िर था रोकते भी क्या हम उस को देख ही सकते थे दूर जाते हुए निगाह-ए-लम्स से अब उस को देखना था हमें सो आँख मूँद ली उस के क़रीब जाते हुए फिर उँगलियों से मिरी रिसने लग गया पानी सफ़ेद काग़ज़ों पर मछलियाँ बनाते हुए