पराई भीड़ में कैसे जुदा लगूँगा मैं अकेला हूँगा तो सब को ख़ुदा लगूँगा मैं अभी तो रेत की सूरत उड़ा रहे हो मुझे ज़रा सी देर रुको आइना लगूँगा मैं बुरा लगेगा कोई दिन तुझे बदन का ख़याल फिर एक शब तिरे सीने से आ लगूँगा मैं सफ़र में तुझ पे कभी अहमियत खुलेगी मिरी भटकने वाले तुझे रास्ता लगूँगा मैं तिरे ग़ुबार ने मेरी चमक घटा दी है हवा चलेगी तो फिर से नया लगूँगा मैं पहन लिया था किसी रोज़ बाप का जूता मुझे लगा था कि ऐसे बड़ा लगूँगा मैं ख़ुदा-परस्तों ने काफ़िर समझ के मार दिया पता नहीं कि फ़रिश्तों को क्या लगूँगा मैं शिकस्त खा के भी मेरी अना बची रहेगी उजड़ते वक़्त भी उस को हरा लगूँगा मैं अजब नहीं है कि मुबहम रहे क़रीब की शय ज़मीं की आँख से देखो ख़ला लगूँगा मैं हज़ारों वाक़िए मैं ने निगल लिए 'हमज़ा' मुअर्रख़ीन को आतिश-कदा लगूँगा मैं