परिंदे होते अगर हम हमारे पर होते ज़रा सी देर में इक दूसरे के घर होते बला से हिज्र की रातें तवील-तर होतीं मगर न वस्ल के दिन इतने मुख़्तसर होते हम अपने मरकज़-ओ-मेहवर से कट गए वर्ना उस एक दर के जो होते न दर-ब-दर होते तुम्हारी चाह में इतना तो हम से हो सकता तुम्हारी राह में फूलों भरा शजर होते अमीर-ए-दश्त का सुनसान रास्ता होता और एक शाम को हम दोनों हम-सफ़र होते