पस्ती से बुलंदी पर खींचा है सितारों ने सदियों के तजस्सुस ने क़रनों के इशारों ने ग़र्क़ाबी-ए-आदम की तारीख़ मुरत्तब की वीरान जज़ीरों ने सुनसान किनारों ने तारीख़ के चेहरे पर जो ज़ख़्म नज़र आए कुछ और किया गहरा इन वक़्त के धारों ने हर दौर में कीं पैदा आज़ादी की तमसीलें ज़ंजीर के हल्क़ों ने ज़िंदाँ की दरारों ने कीं अज़्म-ए-तवाना की दिल खोल के तारीफ़ें पत्थर की फ़सीलों ने फ़ौलाद के आरों ने शब-ख़ून-ओ-सियह-कारी बद-चलनी-ओ-अय्यारी सूरज ने नहीं देखी देखी है सितारों ने इक कैफ़ सा तारी है खुलती ही नहीं आँखें कुछ ऐसी पिला दी है नौ-ख़ेज़ बहारों ने क्या मिल के पिएँ और क्या सर जोड़ के हम बैठें नक़्शा ही बदल डाला साक़ी के इशारों ने उन ज़ख़्मों से रिसता है ऐ 'मेहर' लहू अब तक खाए थे कभी पत्थर जो बख़्त के मारों ने