शब-ए-सियाह का आँचल सरक चुका है बहुत अँधेरी रात में जुगनू चमक चुका है बहुत रईस-ए-शहर मिरा और इम्तिहान न ले कि मेरे सब्र का साग़र छलक चुका है बहुत न काम आएगी अब शम-ए-दिल की ताबानी तअ'ल्लुक़ात का शो'ला भड़क चुका है बहुत चले भी आओ कि मिल कर मनाएँ जश्न-ए-बहार हमारे शौक़ का ग़ुंचा चटक चुका है बहुत तुम्हारे रिश्ते की अब परवरिश नहीं मुमकिन कि मेरे दिल में ये काँटा खटक चुका है बहुत मिला न कुछ भी उसे मेरी ख़ामियों का सुराग़ वो मेरी ज़ात की मिट्टी फटक चुका है बहुत बता दे मंज़िल-ए-मक़्सूद का निशाँ उस को कि अपनी राह से इंसाँ भटक चुका है बहुत उसूल-ए-मय-कशी 'मासूम' को सिखाएँ न आप वो पी चुका है बहुत और बहक चुका है बहुत