पाया था कुछ सुकून दिल-ए-दाग़-दार ने ज़ख़्मों को फिर निखार दिया है बहार ने फिर है तिरे करम की ज़रूरत निगाह-ए-दोस्त आवाज़ दी है मुझ को ग़म-ए-रोज़गार ने आ जा कि दिल दुआ न करे फिर फ़िराक़ की मुज़्तर बना दिया है तिरे इंतिज़ार ने अहल-ए-ख़िरद में कोई न मंसूर बन सका दीवानगी को आम किया शौक़-ए-दार ने 'अख़्तर' न बुझ सकेगी वो शम-ए-वफ़ा कभी बख़्शी हो रौशनी जिसे परवरदिगार ने