फेर देते हैं रुख़ वो तूफ़ाँ का क्यों सहारा न लूँ मैं दामाँ का तेरे आने से आ गई है बहार बख़्त जागा है शहर-ए-वीराँ का जान-ओ-दिल उस की दीद के मुश्ताक़ वही महबूब है दिल-ओ-जाँ का जिस के बंदे क़ज़ा में उड़ते हैं मैं भी हूँ बंदा उस सुलैमाँ का उस का चेहरा दिखा रहा है हमें सारा मंज़र ही इक गुलिस्ताँ का कैसी इक़्लीम में मुक़ीम हैं हम आदमी वाँ न जा सके याँ का उस के महज़र मैं क्या बयान करूँ वो तो बीना है हाल-ए-पिन्हाँ का जिस को डाला था क़ैद में 'साबिर' शाहज़ादा था वो तो ईराँ का