फिर किसी क़र्या-ए-हिजरत से मुझे देखता है इश्क़ अब कौन सी ग़ायत से मुझे देखता है कोई पैग़ाम मुसलसल है मिरी ख़ाक के नाम इक सितारा बड़ी मुद्दत से मुझे देखता है किस को समझाऊँ शब-ए-तार में दिल की मुश्किल चाँद भी अपनी सुहूलत से मुझे देखता है ऐन मुमकिन है समुंदर को बुला लूँ मैं भी शहर का शहर रऊनत से मुझे देखता है ऐसी वहशत है इन आँखों में कि अब सहरा का जो भी ज़र्रा है अक़ीदत से मुझे देखता है कैसा आईना हूँ हैरान नहीं हूँ 'तारिक़' देखने वाला भी हैरत से मुझे देखता है