क़दम क़दम पे चराग़-ए-अदा जलाते हुए अभी अभी कोई गुज़रा है मुस्कुराते हुए अना-परस्त हैं तह-दारियों में जीते हैं यहाँ तो रोना भी पड़ता है मुस्कुराते हुए फिर एहतिमाम करें हम नए चराग़ों का हवा गुज़र गई सारे दिए बुझाते हुए शब-ए-सियाह की वुसअ'त से हो के बे-परवा वो बढ़ रहा है दिए से दिया जलाते हुए कहीं वजूद न खो बैठे ये समुंदर भी तुम्हारी आतिश-ए-तिश्ना-लबी बुझाते हुए बिखर न जाए बदन भी मिसाल-ए-रेग-ए-रवाँ गुज़र रहा है हवा के थपेड़े खाते हुए उसे तुम आँख में अपनी छुपा के रख लेना कहीं मिले वो अगर तुम को आते-जाते हुए उसी पे आ गया इल्ज़ाम-ए-ना-शनासाई जो ज़ख़्म ज़ख़्म हुआ ख़ानदाँ बचाते हुए किसी के दस्त-ए-हुनर के सिवा नहीं कुछ भी सँभल गया हूँ जो ऐ 'नूर' डगमगाते हुए