पिघलती जान पे कब इख़्तियार तेरा है कि शम्अ-दान पे कब इख़्तियार तेरा है क़फ़स की क़ैद में रख लाख बाल-ओ-पर मेरे मिरी उड़ान पे कब इख़्तियार तेरा है क़लम ज़रूर तू हाथों से छीन सकता है मिरी ज़बान पे कब इख़्तियार तेरा है ज़मीं तो छीन ली पैरों तले की तू ने मगर इस आसमान पे कब इख़्तियार तेरा है ये माना ज़ख़्म तो भर देगा वक़्त का मरहम मगर निशान पे कब इख़्तियार तेरा है ये तेरा जिस्म पे दावा तो ठीक है लेकिन दिमाग़ ध्यान पे कब इख़्तियार तेरा है छुपाना तलवों के छालों को लाख तू 'सीमा' तिरी थकान पे कब इख़्तियार तेरा है