पीते हैं उसी जा बादा-ए-ग़म मख़मूर जहाँ से होते हैं राहत भी वहीं से मिलती है रंजूर जहाँ से होते हैं इस जज़्ब-ए-मोहब्बत के सदक़े इस जज़्बा-ए-दिल का क्या कहना मुख़्तार वहीं बन जाते हैं मजबूर जहाँ से होते हैं महसूस कुछ ऐसा होता है ग़म अपना मुक़द्दर है शायद मिलते हैं हज़ारों दर्द वहीं मसरूर जहाँ से होते हैं अब रस्म-ए-तग़ाफ़ुल रहने दो अब पास हमारे आ जाओ ये वक़्त ग़नीमत है देखो हम दूर जहाँ से होते हैं ये रंग-ए-तसव्वुर क्या कहिए दुनिया-ए-तख़य्युल जन्नत है नज़दीक उन्हें पाता हूँ बहुत वो दूर जहाँ से होते हैं क्या पर्दा है उन का पर्दा भी ये चाँद ये तारे देखो तो दिन-रात निगाहों में रह कर मस्तूर जहाँ से होते देखे तो 'वकील' आकर कोई गुमराही-ए-मंज़िल का आलम मंज़िल वो भटकती फिरती है हम दूर जहाँ से होते हैं