पुराने लोग नए कारोबार देते हैं ख़िज़ाँ ख़रीद के फ़स्ल-ए-बहार देते हैं ज़रूर उन को मोहब्बत से वास्ता होगा जो रंज-ओ-ग़म के एवज़ हम को प्यार देते हैं शब-ए-विसाल की लज़्ज़त उन्हें नसीब हुई जो इंतिज़ार की घड़ियाँ गुज़ार देते हैं हमारे अश्क मोहब्बत में क़ीमती ठहरे ग़म-ए-हयात की क़िस्मत सँवार देते हैं मिलन की रुत पे बशर क्या दरख़्त और पौदे सब अपनी अपनी क़बाएँ उतार देते हैं हमारी जान की क़ीमत चुका रहे हैं वो मिला के ख़ाक में मुश्त-ए-ग़ुबार देते हैं हम अपने आप में ख़ुद बा-वक़ार हैं 'आसी' जो बे-वक़ार हैं अपना वक़ार देते हैं