क़फ़स में आज कोई ग़म-गुसार भी तो नहीं अजीब वक़्त है ज़िक्र-ए-बहार भी तो नहीं निगाह-ए-नाज़ को इल्ज़ाम किस तरह दीजे ख़ुद अपने दिल पे हमें इख़्तियार भी तो नहीं ये मानते हैं कि अब वो घुटन नहीं लेकिन ख़िज़ाँ के बाद का आलम बहार भी तो नहीं भटक रहे हैं अँधेरों में कारवाँ अब भी कोई चराग़ सर-ए-रहगुज़ार भी तो नहीं सभी को मेरी तबाही पे आ रहा है तरस मगर किसी की नज़र शर्मसार भी तो नहीं हमारे ग़म पे जहाँ हँस रहा है क्यों 'माहिर' हमारी तरह कोई बे-क़रार भी तो नहीं