क़ाफ़िला गुल का जब आया तिरी ख़ातिर ठहरा बाद तेरे न कोई जश्न का महवर ठहरा रंग और नूर के दिन रात रक़ीबों को मिले कर्ब तन्हा मिरे दरवाज़े पे आ कर ठहरा घर से जो दूर है अपनों से अलग मुल्क-बदर इस्तिआ'रे के लिए ताइर-ए-बे-घर ठहरा शम्अ' होती तो मिरे साथ पिघलती रहती चाँद था अक्स तिरा साथ न शब-भर ठहरा