क़लील आप नहीं और हम कसीर नहीं हुक़ूक़ सब के हैं यकसाँ कोई हक़ीर नहीं जो वक़्त आए तो मेरा भी इम्तिहाँ ले लो वफ़ा-शिआ'र हूँ मुर्दा मिरा ज़मीर नहीं पड़े जो वक़्त तो फ़ौलाद से भी टकराए मिरा वजूद फ़क़त ख़ाक का ख़मीर नहीं मिरे वजूद से नफ़रत तुम्हें है क्या मा'नी बहुत अहम हूँ तुम्हारे लिए हक़ीर नहीं भरी बहार में मंज़र ख़िज़ाँ का लगता है चमन में फूल क़फ़स में कोई असीर नहीं दराज़ कोई भी करता नहीं है दस्त-ए-तलब हमारे शहर में शायद कोई फ़क़ीर नहीं कहीं वो अपनी डगर से भटक न जाए 'हबीब' रह-ए-तलब की जमाअत का जब अमीर नहीं