क़रार खो के मिला ये वक़ार थोड़ा सा वो संग-दिल भी हुआ अश्क-बार थोड़ा सा किसी के जल्वे निगाहों में जज़्ब कर लेता दम-ए-नज़ारा जो मिलता क़रार थोड़ा सा किया कलीम को अरमान-ए-दीद ने रुस्वा दिखा के जल्वा-ए-परवरदिगार थोड़ा सा मैं आज वाक़िफ़-ए-असरार हो गया साक़ी ज़रा सी पी के जो आया ख़ुमार थोड़ा सा तमाम आबला-पाई की शान मिट जाती कहीं भी चुभ गया होता जो ख़ार थोड़ा सा बड़े पते की बताऊँ बड़े मज़े की कहूँ जो आप मुझ पे करें ए'तिबार थोड़ा सा किसी की याद ब-हंगाम-ए-नज़्अ' कहती है ख़ुदा के वास्ते और इंतिज़ार थोड़ा सा वहीं कहीं मुझे साक़ी ज़रा पिला देना जहाँ कहीं हो नशे का उतार थोड़ा सा जो देखता है मिरी बे-क़रारियाँ 'शब्बीर' उसी को देखता हूँ बे-क़रार थोड़ा सा