क़िस्मत-ए-चश्म-ए-तर बढ़ाना है आँसूओं को गुहर बनाना है ये ज़माना अजब ज़माना है हर हक़ीक़त यहाँ फ़साना है भड़के जज़्बात को दबाना है पानी इस आग को बनाना है हँस के बार-ए-अलम उठाना है मौत को ज़िंदगी बनाना है हम तो सैल-ए-बला की नज़्र हुए दूसरों को मगर बचाना है हम नहीं देखते हवा का रुख़ काम अपना दिया जलाना है मेरा ही हम-नवा नहीं कोई आप के साथ तो ज़माना है इम्तिहाँ ले चुके ज़माने का अब हमें ख़ुद को आज़माना है