क़ुतुब ग़ियास क़लंदर अली वली मिट्टी तुम्हारे इश्क़ में क्या क्या नहीं हुई मिट्टी है मुर्ग़-ए-अक़्ल अभी तक इसी कशाकश में फ़लक से आगे कहाँ तक चली गई मिट्टी फिर एक नूर ने इस में क़ियाम फ़रमाया मैं सोचता था कि किस वास्ते बनी मिट्टी ये लोग क्यों मुझे सर पर उठाए फिरते हैं ये किस मज़ार से मस हो गई मिरी मिट्टी ये किस ने ख़ून के आँसू रुला दिए उस को ये किस के ज़िक्र पे यूँ सुर्ख़ हो उठी मिट्टी ये ज़लज़लों का तसलसुल ये सूखती नदियाँ बता रहे हैं कि हद से निकल गई मिट्टी ख़ुदा क़सम मिरी तुर्बत से नूर फूटेगा तुम्हारे हाथ से मुझ पर अगर पड़ी मिट्टी अरे ओ नाम-निहादो ये किस गुमान में हो न जाने कितने ख़ुदाओं को खा गई मिट्टी हमारे पाँव में छाले तो पड़ गए लेकिन हमारे अज़्म से 'शादाब' हो गई मिट्टी