रात-दिन कश्मकश-ए-ज़ुल्फ़-ए-दुता में हूँ मैं हाए किस पेच में आफ़त में बला में हूँ मैं सुब्ह होते ही निकल चलने का सामान किया रात भर के लिए इस कोहना-सरा में हूँ मैं होश आए हैं बुढ़ापे में जवानी तो गई सुब्ह का वक़्त है और याद-ए-ख़ुदा में हूँ मैं हाए किस मुँह से हो क़िस्मत के बिगड़ने का गिला अपने अफ़आ'ल-ए-कमीना की सज़ा में हूँ मैं बहुत आसान था एक एक ख़ता का करना सब की अब फ़िक्र है और दस्त-ए-क़ज़ा में हूँ मैं बे-तकल्लुफ़ वही करता है जो दिल चाहे है फ़िक्र मेरी न करो तुम फ़ुक़रा में हूँ मैं बात जो बस गई दिल में वो निकलती कब है छेड़िए मुझ को न 'सैफ़ी' जुहला में हूँ मैं