तड़प में भी मज़ा आने लगा है ग़म के मारों को ख़याल-ए-सरख़ुशी बहका न दे इन सोगवारों को गुलिस्ताँ जो बनाना चाहते थे ख़ारज़ारों को उन्हीं की शोख़-गामी रौंदती है लाला-ज़ारों को सआ'दत चाहता था कल फ़लक भी जिन के सज्दों की बगूले ढूँडते फिरते हैं आज उन के ग़ुबारों को मय-ओ-कौसर की ख़ातिर जब ये ख़ुद सज्दों में गिरता है तो किस मुँह से बुरा कहता है ज़ाहिद मय-गुसारों को रुमूज़-ए-इश्क़ से कोई उसे आगाह कर देता जला कर हँस रही है शम्अ' अपने जाँ-निसारों को अता कर दी मिरे हुस्न-ए-नज़र ने शान-ए-यकताई जहाँ में कौन वर्ना पूछता था गुल-'इज़ारों को न देखे जा सके जो तूर पर मुश्ताक़ नज़रों से ब-चश्म-ए-शौक़ हम ने ख़ूब देखा उन नज़ारों को अज़ल से जो फ़ना का ख़ौफ़ ले कर सहमे बैठे हैं तलातुम-आश्ना करता है 'साबिर' उन किनारों को