रब्त-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ अज़ल से सच्चा ये अफ़्साना है शम्अ' है जिस महफ़िल में रौशन देखो वहीं परवाना है दिल के सिवा कुछ पास नहीं है दिल तेरा नज़राना है याद तिरी रहने को हमेशा हाज़िर ये काशाना है उस का चेहरा सूरज ऐसा उस का ग़म सूरज की तपिश चाँद उसे किस तरह से कहिए चाँद तो इक वीराना है पास था जब तू कितनी उमंगें इस दिल में आबाद रहीं जब से हुआ है मुझ से जुदा तू दिल ये नहीं वीराना है ग़ैरों का हम शिकवा करें क्यों अपनों ने जब दी है दग़ा जिस दिल को समझे थे अपना आज वही बेगाना है दिल का लहू ये आँसू बन के आँख से टप टप गिरने लगा समझो उसे पानी का न क़तरा अश्क नहीं दुर्दाना है सुन के मिरी रूदाद-ए-ग़मगीं हँस कर बोला वो ज़ालिम लाखों सुने हैं ऐसे क़िस्से ये भी इक अफ़्साना है बैठे रहे सब ऐरे-ग़ैरे ग़ैर था इक मैं ही जैसे मुझ को उठाया बज़्म से उस ने कह के ये दीवाना है बदली है गुलशन की हवा क्यों बिगड़ा मिज़ाज-ए-बुलबुल क्यों अंजुमन-ए-गुल है अबतर क्यों सब्ज़ा क्यों बेगाना है अपने क़दह की ख़ैर मना कर मय-कश अपनी राह लगे रिंद-ए-ख़राबाती के दम से आबाद अब मय-ख़ाना है तू हो सलामत दम रहे तेरा मय-कदे में है शोर 'फ़ज़ा' आया आया साक़ी मेरा गर्दिश में पैमाना है