राब्ता टूट न जाए कहीं ख़ुद-बीनी से दिल लरज़ उट्ठा है माहौल की संगीनी से हौसला है तो सराबों में उतर कर देखो ज़िंदा रहना तो इबारत है ख़ुश-आईनी से अब सर-ए-आख़िर-ए-शब लाए हो सूरज की ख़बर यूँ तमाशा न करो सुब्ह की रंगीनी से न बुरूदत थी न हिद्दत थी अजब मौसम था चोट खाया किए हम अपनी ही कज-बीनी से आँख पथराई हुई और ज़बाँ गुंग कि जब ज़र्फ़ मिट्टी के बने और बदन चीनी से दर्द तल्ख़ाबा-ए-एहसास में ज़म हो के रहा क़त्ल-गह पट गई अल्फ़ाज़ की शीरीनी से सामने आ के जो वो हाथ मिलाए तो सही मुझ को हौल आता है उस शख़्स की मिस्कीनी से