राएगाँ जाती है क्या जाँ किसी दीवाने की शम्अ भी जलती रही याद में परवाने की चश्म-ए-कोहसार ने रो रो के बहाए दरिया कितनी पुर-दर्द हँसी थी तिरे दीवाने की मुझ को हर सम्त से क़ुलक़ुल की सदा आती है सम्त-ए-मस्जिद हो या गिरजे की हो बुत-ख़ाने की हर क़दम होश-रुबा और नज़र होश शिकन वुसअ'तें बढ़ गईं कितनी तिरे मयख़ाने की 'सोज़' बुनियाद में चुन चुन के हुआ है ता'मीर दुश्मनी बर्क़ को आसाँ नहीं काशाने की