रग-ए-जाँ में उतर कर बोलता है हक़ीक़त जब सुख़नवर बोलता है किसी से कब वो डर कर बोलता है ज़बान-ए-हक़ क़लंदर बोलता है अता होती है जिस को चश्म-ए-बीना तो क़तरे में समुंदर बोलता है नहीं हीरा चमकता बे-तराशे तरश जाए तो पत्थर बोलता है वो झूटा है जो बे-तहक़ीक़ बातें किसी से सुन के अक्सर बोलता है वही है मो'तबर आँसू जो 'अख़्तर' सर-ए-मिज़्गाँ ठहर कर बोलता है