रह गई लुट कर बहार-ए-ज़िंदगी ज़िंदगी है सोगवार-ए-ज़िंदगी मेरी नज़रों में हसीं धोका है इक जिस को कहते हैं बहार-ए-ज़िंदगी कुलफ़तें कुछ तल्ख़ियाँ कुछ हादसे अब यही है यादगार-ए-ज़िंदगी मिट रहा हो जो किसी के इश्क़ में फिर कहाँ उस को क़रार-ए-ज़िंदगी तिरी उल्फ़त तेरा ग़म तेरा ख़याल कुछ यही है कारोबार-ए-ज़िंदगी अपना दिल ही जब पराया हो गया कौन हो अब राज़-दार-ए-ज़िंदगी तेरे दम से थी बहारों में बहार अब कहाँ है वो बहार-ए-ज़िंदगी सूखे पत्तों से ये कहती है ख़िज़ाँ यूँ उतरता है ख़ुमार-ए-ज़िंदगी अपने दामन से हवा देते रहो बुझ न जाए ये शरार-ए-ज़िंदगी ऐ 'शफ़क़' किस ने बिगाड़ा है इसे कौन है पर्वरदिगार-ए-ज़िंदगी