रह गई थी यही इक बात बताने के लिए हम तो आए थे यहाँ लौट के जाने के लिए शौक़ ने दिन वो दिखाए हैं कि दिल जानता है कह दिया था कभी दीदार दिखाने के लिए अब तो इतना भी नहीं याद कि वो सूरत-ए-ख़्वाब याद रखने के लिए थी कि भुलाने के लिए दम-ए-ख़ूँ-रेज़ भी जाती नहीं शोख़ी उन की मुझ से ही कहते हैं तलवार उठाने के लिए रोज़ इक रंग उभरता है सर-ए-सफ़हा-ए-दर्द रोज़ इक नक़्श बनाता हूँ मिटाने के लिए बहर-ए-पुर-शोर में अब ख़ुश हूँ कि इक मौज-ए-सुकूत आने वाली है मुझे पार लगाने के लिए