रोज़ बे-वक़्त यहाँ कौन सदा देता है नींद पूरी नहीं होती कि जगा देता है सारा अपना ही लिखा आप मिटा डाला था याद आता है वो क़िस्सा तो रुला देता है होने लगता है गुमाँ जुम्बिश-ए-लब का जिस दम सामने से कोई तस्वीर हटा देता है चलो अब डूब ही जाते हैं कि दरिया कब से किसी ग़र्क़ाब ख़ज़ाने का पता देता है रोज़ मिलता हूँ मैं अपने को बड़ी मुश्किल से कौन है जो मुझे ख़ुद से ही छुपा देता है जाने किस धूप की शिद्दत है बदन-सहरा में लू का झोंका भी क़यामत का मज़ा देता है साया-ए-अब्र-ए-रवाँ तेरा गुज़रना अक्सर कुछ न कुछ जैसे हमें याद दिलाता देता है