राह पर उन को लगा लाए तो हैं बातों में और खुल जाएँगे दो चार मुलाक़ातों में अब्र-ए-रहमत ही बरसता नज़र आया ज़ाहिद ख़ाक उड़ते कभी देखी न ख़राबातों में तुम्हीं इंसाफ़ से ये हज़रत-ए-नासेह कह दो लुत्फ़ इन बातों में आता है कि उन बातों में ऐसी तक़रीर सुनी थी न कभी शोख़-ओ-शरीर तेरी आँखों के भी फ़ित्ने हैं तिरी बातों में अह्द-ए-जमशेद में था लुत्फ़-ए-मय-ओ-अब्र-ओ-हवा कब ये माशूक़ थे उस वक़्त की बरसातों में भेजे देता है उन्हें इश्क़ मता-ए-दिल-ओ-जाँ एक सरकार लुटी जाती है सौग़ातों में वो गए दिन जो रहे याद बुतों की ऐ 'दाग़' रात-भर अब तो गुज़रती है मुनाजातों में