रश्क से ग़ैरों के जी खोते हैं हम क्या बुरों की जान को रोते हैं हम बे-ख़ुदाना अपनी हुश्यारी रही जागते हैं कुछ तो कुछ सोते हैं हम अपने घर रहने दे क्यों कर हूर-वश हज़रत-ए-आदम ही के पोते हैं हम जाँ-कनी अपना है काम ऐ कोहकन इश्क़ में पत्थर नहीं ढोते हैं हम 'दाग़' है किस को मयस्सर दर्द-ए-इश्क़ रंज होता है तो ख़ुश होते हैं हम