राहत-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर गर्मी-ए-बाज़ार से है आज-कल घर का तसव्वुर दर-ओ-दीवार से है ज़िंदगी ही ने नहीं झटका है दामन अपना चारागर मौत भी रूठी हुई बीमार से है जामा-ए-उंसुर-ए-हस्ती को कहीं फेंक आऊँ ज़िंदगानी की मुसीबत तो इन्ही चार से है मरहम-ए-तल्ख़ी-ए-गुफ़्तार कहाँ से लाऊँ ज़ख़्म गहरा तिरे अल्फ़ाज़ का तलवार से है कार-ए-वहशत को सर-अंजाम यही तो देगा काम अभी हम को बहुत कुछ दिल-ए-बे-कार से है छोड़ देता है जहाँ साँस भी इंसान का साथ अब सफ़र ज़ीस्त का उस मंज़िल-ए-दुश्वार से है तेरा अंदाज़-ए-सुख़न 'ख़िज़्र' जुदा है सब से तेरी पहचान ही ज़ालिम तिरे अशआ'र से है