रही जो बेगाना-ए-मोहब्बत हयात वो सुर्ख़-रू नहीं है वो फूल कैसा कि जिस में शामिल लताफ़त-ए-रंग-ओ-बू नहीं है ये ग़ैर मुमकिन है हर्फ़ आए निज़ाम-ए-बादा-कशी पे साक़ी खुला रहेगा शराब-ख़ाना बला से जाम-ओ-सुबू नहीं है है मेरी फ़ितरत नियाज़-मंदी कमाल तेरा है बे-नियाज़ी मुझे तिरी जुस्तुजू है लेकिन तुझे मिरी जुस्तुजू नहीं है ये बात अलग है कि हम नहीं हैं शरीक-ए-जश्न-ए-बहार-ए-गुलशन वगर्ना कब इस चमन में शामिल हमारा रंगीं लहू नहीं है तिरे ग़म-ए-जाँ-फ़ज़ा के सदक़े तिरी जफ़ा-ए-हसीं के क़ुर्बां न जाने क्यों कुछ दिनों से मुझ को ख़ुशी की अब आरज़ू नहीं है मिरी निगाहों से दूर रह कर वो मेरे दिल को जला रहे हैं मैं किस को इल्ज़ाम दूँ बताऊँ कोई मिरे रू-ब-रू नहीं है ये बात वाज़ेह जहाँ में 'नासिर' ब-क़ौल-ए-मंसूर हो गई है अदा न होगी नमाज़-ए-उल्फ़त अगर लहू से वुज़ू नहीं है