तज्दीद-ए-रह-ओ-रस्म-ए-मुलाक़ात भी होती वो सामने आते तो कोई बात भी होती बे-तीर-ओ-कमाँ जिस ने ज़माने को किया सैद ऐ काश हदफ़ उस का मिरी ज़ात भी होती हम फिर भी निकलते न सराबों के भँवर से इस दश्त-ए-तपीदा में जो बरसात भी होती मम्नून हूँ मैं यूँ भी तिरी मर्हमतों का दामन के ही शायाँ कोई सौग़ात भी होती आईना तिरी सुब्ह-ए-दरख़्शाँ को दिखाता ख़ुर्शीद-ब-कफ़ यूँही मिरी रात भी होती इस बात करम तक तो रसाई थी यक़ीनी गर साथ कोई शम्अ-ए-मुनाजात भी होती वो चाँद सा पैकर कभी आँगन में उतरता रौशन ये मिरी वादी-ए-ज़ुल्मात भी होती मैं तेरे जवाबात का कुछ जाएज़ा लेता हाथों में अगर फ़र्द-ए-सवालात भी होती हम करते शुमार उन का फ़रिश्ता-नफ़सों में मंसूब जो कुछ उन से करामात भी होती फिर क़िस्तों में 'नासिर' हमें मरना नहीं पड़ता हासिल जो यहाँ थोड़ी मुराआत भी होती