रहोगे बज़्म-ए-हस्ती में यूँही बे-दस्त-ओ-पा कब तक करोगे तुम ज़माने से मुक़द्दर का गिला कब तक नज़र से हुस्न का आख़िर बढ़ेगा फ़ासला कब तक तख़य्युल का न गर्द-आलूद होगा आइना कब तक चलेगी सहन-ए-गुलशन में तअ'स्सुब की हवा कब तक रहेगा आदमी का आदमी दुश्मन भला कब तक कभी सोचा भी दीवानो शब-ए-ग़म राह-ए-मंज़िल में सहारा तुम को देगा हर क़दम पर रहनुमा कब तक ख़ुशामद जी हुज़ूरी ख़ुद-फ़रेबी से चमन वालो रफ़ू करते रहोगे चाक-ए-दामान-ए-क़बा कब तक अरे ना-आक़िबत-अँदेश इस मौज तलातुम से बचाएगा यूँ ही हर-वक़्त तुझ को नाख़ुदा कब तक उसे कुछ मशवरा दें अहल-ए-दानिश किस लिए चुप हैं 'सहर' दश्त-ए-तजस्सुस में रहे सीमाब-पा कब तक