रहूँगा इश्क़ में महरूम-ए-तासीर-ए-फ़ुग़ाँ कब तक फ़रेब-ए-ज़िंदगी खाती रहे उम्र-ए-रवाँ कब तक ख़ुदा के वास्ते ओ फ़ित्ना-सामाँ ये तो समझा दे हवस के नाम पर पाबंदी-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ कब तक न दुनिया से त'अल्लुक़ है न उक़्बा से मुझे मतलब रहे मेरी तबीअ'त बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ कब तक तसव्वुर भी तिरा है मावरा-ए-फ़िक्र-ए-इंसानी तिरी हस्ती रहेगी मेरे हक़ में चीसताँ कब तक ये फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत है कि मैं अब तक सलामत हूँ मगर तूफ़ान में ये कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ कब तक वही गर्दिश वही जल्वे वही मंज़र वही आलम रहेंगे एक हालत में ज़मीन-ओ-आसमाँ कब तक 'अज़ीम' उन के तग़ाफ़ुल ने कहीं का भी नहीं रक्खा ब-फ़ैज़-ए-हूर यूँ ज़िंदा रहे ये ख़स्ता-जाँ कब तक