उन को ग़म की ख़बर न हो जाए मुद्दआ' बे-असर न हो जाए हाँ सँभल कर नक़ाब रुख़ से उलट देख ज़ख़्मी नज़र न हो जाए आरिज़-ए-रुख़ की शो'ला-सामानी रश्क-ए-शम्स-ओ-क़मर न हो जाए फिर वो निकले हैं आज सज-धज कर नज़्म-ए-आलम दिगर न हो जाए रो पड़े सुन के दास्तान-ए-हयात इश्क़ फिर मो'तबर न हो जाए वो टहलते हैं सेहन-ए-गुलशन में रक़्स-ए-बर्क़-ओ-शरर न हो जाए तू जिधर आज जा रहा है दोस्त वो मिरी रहगुज़र न हो जाए अज़्म-ए-राह-ए-मज़ार-ए-बुलबुल पर पुर्सिश-ए-बाल-ओ-पर न हो जाए ख़ुद-सताई कहीं 'अज़ीम' अपनी बे-नियाज़-ए-असर न हो जाए