रहज़नी को रहबरी समझे थे हम दुश्मनी को दोस्ती समझे थे हम बे-मुरव्वत बेवफ़ा साबित हुआ जिस को मुख़्लिस आदमी समझे थे हम नक़्श-ए-पा-ए-यार पे सर रख दिया बस इसी को बंदगी समझे थे हम क़त्ल की साज़िश में हैं वो भी शरीक जिन को अपनी ज़िंदगी समझे थे हम जान लेने की थी इक वो भी अदा जिस को उन की सादगी समझे थे हम याद-ए-माज़ी मुस्तक़िल इक दर्द है इस को अब तक आरज़ी समझे थे हम ख़ून दिल का हो रहा था ऐ 'ज़िया' और उस को बेकली समझे थे हम