राज़-ए-दिल जो आदमी दिल में छुपा सकता नहीं वो किसी को राज़दाँ अपना बना सकता नहीं दौर-ए-गर्दूं लाख चाहे इम्तिहाँ लेता रहे चश्म-ए-तर से मैं हदीस-ए-ग़म सुना सकता नहीं इस तरह मुझ को मिटाया उस सितम-ईजाद ने अब ज़माना भी निशाँ मेरा मिटा सकता नहीं क्यों न अपनी ही हदों में रह के जीना सीख लें कोई अपने आप से बाहर तो जा सकता नहीं ज़िंदगी क्या है मुसलसल कश्मकश है ऐ 'सुरूर' मौत से पहले कोई आराम पा सकता नहीं