रख दी उड़ा के ख़ाक-ए-बयाबाँ कभी कभी रास आ गया है गोशा-ए-ज़िंदाँ कभी कभी लाए हैं हम बुतों पे भी ईमाँ कभी कभी क़ल्ब-ओ-नज़र हुए हैं मुसलमाँ कभी कभी छाई है ख़ाक-ए-शहर-ए-निगाराँ कभी कभी देखा उन्हें क़रीब-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी नालों का था करिश्मा कि आह-ए-रसा का फ़ैज़ वा हो गया है ख़ुद दर-ए-ज़िंदाँ कभी कभी अक़्ल-ए-फ़रेब-कार से करता है मशवरे ढाता है क्या सितम दिल-ए-नालाँ कभी कभी ज़ब्त-ए-अलम है इश्क़ में शर्त-ए-वफ़ा मगर आए हैं अश्क भी सर-ए-मिज़्गाँ कभी कभी इक शोर-ए-हश्र हो गया मय-ख़ानों में बपा साग़र से है उठा मिरे तूफ़ाँ कभी कभी तौफ़-ए-हरीम-ए-नाज़-ए-बुताँ में कटी है उम्र का'बा के भी बने हैं निगहबाँ कभी कभी देखा है ये भी मैं ने ब-फ़ैज़-ए-जुनूँ 'मुनीर' आतिश-कदा बना है गुलिस्ताँ कभी कभी