तू मुक़ीम सुब्ह-ए-अज़ल से है मिरी शाह-रग के क़रीं सही मगर आ सका न मुझे नज़र मिरे दिल में लाख मकीं सही ये शिकस्त-ए-शेवा-ए-नाज़ है जो मिज़ाज-ए-हुस्न बदल सके कभी मुँह से हाँ न निकल सकी जो कहा नहीं तो नहीं सही मैं वो आब-ओ-गिल का हूँ शो'बदा कि मलक फ़रेब में आ गए मिरी दस्तरस में है अर्श भी मैं हज़ार ख़ाक-नशीं सही ये सुरूर-ओ-ज़ौक़ की मंज़िलें ये मक़ाम-ए-शौक़ की रिफ़अतें मिरी आह-ए-सुब्ह की देन हैं मुझे इस का भी न यक़ीं सही तिरा आस्ताँ तो न मिल सका तिरे नक़्श-ए-पा ही अगर मिलें मुझे काम सज्दा-ए-शौक़ से मिरा सज्दा नंग-ए-जबीं सही वो नियाज़-मंद 'मुनीर' है जिसे मा-सिवा से ग़रज़ नहीं जो न देखे आँख उठा के भी कोई रश्क-ए-माह-ए-मुबीं सही