रखता हूँ दिल को मैं ग़म-ए-कौन-ओ-मकाँ से दूर मेरा जहाँ है कुन-फ़यकूँ के जहाँ से दूर बेदाद का ख़याल है न ख़्वाहिश है दाद की रहता हूँ मैं ज़मीन से दूर आसमाँ से दूर इक कुंज-ए-बेकसी है मिरी मंज़िल-ए-सुकूँ ये भी उजाड़ दे तो नहीं आसमाँ से दूर ख़ामोश हूँ ज़माना के अंदाज़ देख कर दिल से ज़बाँ भी दूर है दिल भी ज़बाँ से दूर शायद मिरे यक़ीन से तुम दूर हो गए मुमकिन नहीं कि रह सको मेरे गुमाँ से दूर मुझ को ख़बर नहीं कि ये दुनिया-ओ-दीं हैं क्या परवाज़-ए-फ़िक्र अपनी है दोनों जहाँ से दूर मैं जानता हूँ उन की मसर्रत की तल्ख़ियाँ जो जी रहे हैं रह के ग़म-ए-जावेदाँ से दूर बालिश्त भर ज़मीं है मिरी मंज़िल-ए-सुकून ये भी उजाड़ दे तो नहीं आसमाँ से दूर दुनिया-ओ-दीं हैं दोज़ख़-ओ-जन्नत के फेर में गर्दिश में मेरी फ़िक्र है दोनों जहाँ से दूर हम भी ब-क़ौल 'फ़ानी'-ए-मरहूम इन दिनों हिन्दोस्ताँ में रहते हैं हिन्दोस्ताँ से दूर