ज़िक्र उन का जो हुआ आँखों से बरसात हुई हाँ मिरे साथ अजब साज़िश-ए-हालात हुई मिरी ख़ामोशी को तू और कोई नाम न दे मैं तुझे भूल गया ये भी कोई बात हुई साथ मेरे थे मगर थी कहीं दुज़्दीदा नज़र रात महफ़िल में मिरे साथ बड़ी घात हुई एक ही जिन के दिया था वो फ़सादों में बुझा उन से क्या पूछते हो दिन हुआ या रात हुई मैं ने समझा था जिसे दोस्त-ओ-मुआविन अपना उसी बे-दर्द के हाथों से मुझे मात हुई अपने ख़ाशाक-ए-नशेमन के लिए काँप उठा जब भी तूफ़ाँ की बहारों में कहीं बात हुई बाद मुद्दत के मुनव्वर हुईं आँखें 'मूनिस' उस परी-वश से अचानक जो मुलाक़ात होई