रखते हैं ख़िज़्र से न ग़रज़ रहनुमा से हम चलते हैं बच के दूर हर इक नक़्श-ए-पा से हम मानूस हो चले हैं जो दिल की सदा से हम शायद कि जी उठे तिरी आवाज़-ए-पा से हम या रब निगाह-ए-शौक़ को दे और वुसअ'तें घबरा उठे जमाल-ए-जहत-आश्ना से हम मख़्सूस किस के वास्ते है रहमत-ए-तमाम पूछेंगे एक दिन ये किसी पारसा से हम ओ मस्त-ए-नाज़ हुस्न तुझे कुछ ख़बर भी है तुझ पर निसार होते हैं किस किस अदा से हम ये कौन छा गया है दिल ओ दीदा पर कि आज अपनी नज़र में आप हैं ना-आश्ना से हम