सुकूत-ए-ख़ौफ़ यहाँ कू-ब-कू पुकारता है न उस की तेग़ न मेरा लहू पुकारता है मैं अपनी खोई हुई लौह की तलाश में हूँ कोई तिलिस्म मुझे चार-सू पुकारता है वो मुझ में बोलने वाला तो चुप है बरसों से ये कौन है जो तिरे रू-ब-रू पुकारता है निदा-ए-कोह बहुत खींचती है अपनी तरफ़ मिरे ही लहजे में वो हीला-जू पुकारता है हमारा अहद है बे-बर्ग-ओ-बार शाख़ों से अगरचे क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-बू पुकारता है कि जैसे मैं सर-ए-दरिया घिरा हूँ नेज़ों में कि जैसे ख़ेमा-ए-सहरा से तू पुकारता है