रंज तो मेरी चश्म-ए-तर में है दर्द कैसा तिरे जिगर में है तेरे इसरार पर हँसूँ कैसे मेरा हर ग़म तिरे नज़र में है मिल गईं सब को मंज़िलें लेकिन ज़िंदगी मेरी ही सफ़र में है मेरे किरदार में नहीं है जफ़ा बेवफ़ाई तिरे हुनर में है शहर-ए-इंसाफ़ जिस को कहते हैं मेरा क़ातिल उसी नगर में है वो समझता है बे-ख़बर मुझ को जो हमेशा मिरी नज़र में है जिस की ख़ातिर भुला दिया ख़ुद को वो अभी तक अगर मगर में है जब से आईं है बेटियाँ 'रौनक़' तब से बरकत ही मेरे घर में है