रस्म-ए-वफ़ा को हम ने भी रुस्वा नहीं किया हर इक सितम को सह लिया शिकवा नहीं किया कहते हैं इस जहान में बीमार-ए-इश्क़ को अब तक किसी तबीब ने अच्छा नहीं किया समझा गया था जिस को महल्ले में पारसा मौक़ा मिला तो उस ने भी क्या क्या नहीं किया फिर याद आ रही है वही मुल्तजी-निगाह और अश्क जिस का राज़ में समझा नहीं किया वाइज़ को एक बार मैं मय-ख़ाना ले गया फिर उस के बाद मुझ से वो उलझा नहीं किया हम मुस्तक़िल-मिज़ाज हैं बस एक बात में वो ये कि जो किया वो दोबारा नहीं किया बारिश का उज़्र कर के भरम रख भी सकता था अफ़्सोस उस ने कोई बहाना नहीं किया उम्मीद-ए-वस्ल भी है मगर कश्मकश है 'शान' उस ने कहा कि आउँगा वा'दा नहीं किया