रस्ते सारे भूल चुकी हूँ अपनी ज़ात की बंद गली हूँ जो है दिल में वो है ज़बाँ पर आईने की तरह खरी हूँ दिल जो चाहे अक़्ल न माने मैं भी किस चक्कर में पड़ी हूँ पत्थर बरसाते मौसम में शीशे से सर ढक के चली हूँ इस पागल 'नाहीद' के हाथों कहाँ कहाँ न ख़्वार हुई हूँ