रौशनी रहती थी दिल में ज़ख़्म जब तक ताज़ा था By Ghazal << जो थे हाथ मेहंदी लगाने के... माया-ए-नाज़-ए-राज़ हैं हम... >> रौशनी रहती थी दिल में ज़ख़्म जब तक ताज़ा था अब जहाँ दीवार है पहले वहाँ दरवाज़ा था दर्द की इक मौज हर ख़्वाहिश बहा कर ले गई क्या ठहरतीं बस्तियाँ पानी ही बे-अंदाज़ा था रात सारी ख़्वाब की गलियों में हम चलते रहे खिड़कियाँ रौशन थीं लेकिन बंद हर दरवाज़ा था Share on: