रेग-ज़ार आँखों में बे-ख़्वाबी के हैं दिन यही बस्ती की ग़र्क़ाबी के हैं फूल सत्ह-ए-आब पर खिलने लगे हाँ यही अय्याम बेताबी के हैं जम रही हैं तन पे काई की तहें ख़्वाब आँखों में गुहर-याबी के हैं वादियाँ अब बर्फ़ से ढक जाएँगी शब तो शब दिन भी गिराँ-ख़्वाबी के हैं है ज़मीं की तीरगी का सामना मरहले आगे फ़लक-ताबी के हैं क्यों हवाएँ आग बरसाती नहीं दूर तक आसार शादाबी के हैं