रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू तुझ को पराई क्या पड़ी अपनी नबेड़ तू नाख़ुन ख़ुदा न दे तुझे ऐ पंजा-ए-जुनूँ देगा तमाम अक़्ल के बख़िये उधेड़ तू इस सैद-ए-मुज़्तरिब को तहम्मुल से ज़ब्ह कर दामान ओ आस्तीं न लहू में लथेड़ तू छुटता है कौन मर के गिरफ़्तार-ए-दाम-ए-ज़ुल्फ़ तुर्बत पे उस की जाल का पाएगा पेड़ तू ऐ ज़ाहिद-ए-दो-रंग न पीर आप को बना मानिंद-ए-सुब्ह-ए-काज़िब अभी है अधेड़ तू ये तंगनाए-दहर नहीं मंज़िल-ए-फ़राग़ ग़ाफ़िल न पाँव हिर्स के फैला सुकेड़ तू हो क़त्अ नख़्ल-ए-उल्फ़त अगर फिर भी सब्ज़ हो क्या हो जो फेंके जड़ ही से उस को उखेड़ तू जो सोती भीड़ बाइस-ए-ग़ौग़ा जगाए फिर दरवाज़ा घर का उस सग-ए-दुनिया पे भेड़ तू उम्र-ए-रवाँ का तौसन-ए-चालाक इस लिए तुझ को दिया कि जल्द करे याँ से एड़ तू आवारगी से कू-ए-मोहब्बत की हाथ उठा ऐ 'ज़ौक़' ये उठा न सकेगा खखेड़ तू