आरज़ू जुर्म है मुद्दआ' जुर्म है उस फ़ज़ा में उम्मीद-ए-वफ़ा जुर्म है हर तरफ़ हैं मोहब्बत की मजबूरियाँ इब्तिदा जुर्म है इंतिहा जुर्म है ज़ौक़-ए-दीदार पर लाख पाबंदियाँ देख कर फिर उन्हें देखना जुर्म है ज़िंदगी-भर की नींदें उचट जाएँगी साया-ए-ज़ुल्फ़ में बैठना जुर्म है हर सज़ा को किसी की अता मानिए ये भी क्यूँ पूछिए कौन सा जुर्म है आँख उठा कर उन्हें देखिए किस तरह सर उठाने का भी हौसला जुर्म है उन के जल्वों का जब सामना हो गया फिर किसी और का सामना जुर्म है ख़ामुशी भी सलीक़ा है फ़रियाद का उन के जौर-ओ-सितम पर गिला जुर्म है ऐसे माहौल में आ गए हम जहाँ अपने माहौल का जाएज़ा जुर्म है मस्लक-ए-इश्क़ है पैरवी-ए-वफ़ा हिक्मत-ओ-मस्लिहत सोचना जुर्म है आगही शर्त है गुमरही के लिए गुमरही पर पता पूछना जुर्म है दावा-ए-इश्क़ है जुर्म-ए-अव्वल अगर इंहिराफ़-ए-वफ़ा दूसरा जुर्म है उन की शान-ए-करम कह रही है 'रिशी' उन से अब कोई भी इल्तिजा जुर्म है